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Saturday, May 13, 2017

हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है !

हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है !
उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर और देश के प्रखर स्वतंत्रता सेनानी हसरत मोहांनी (1875-1951) को अब शायद ही कोई याद करता है। प्रबल साम्राज्यवाद-विरोधी पत्रकार, संपूर्ण स्वराज का नारा देनेवाले निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी, कांग्रेस के दबंग नेता, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में एक, हमारे भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने वाली संविधान सभा के प्रमुख सदस्य मौलाना हसरत मोहानी उर्फ़ फजलुर्र हसन अपने दौर के विलक्षण व्यक्तित्व रहे थे। वे मोहानी साहब थे जिन्होंने अहमदाबाद में कांग्रेस के 1921 के सत्र में ही भारत के पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा था। महात्मा गांधी उस वक्त तक अंग्रेजों के अधीन होम रूल के समर्थक थे जिसकी वज़ह से उनका प्रस्ताव पास नहीं हो सका। कांग्रेस छोड़ने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना में उनका बड़ा योगदान रहा था। देश को 'इंक़लाब जिंदाबाद' का नारा उन्हीं का दिया हुआ है। वे सुलझे हुए राजनेता और निर्भीक योद्धा ही नहीं, मुहब्बत के बारीक अहसास के हरदिलअज़ीज शायर भी थे। जंगे आज़ादी की उलझनों और कई-कई जेल यात्राओं की वज़ह से उन्हें ज्यादा कुछ लिखने के मौक़े नहीं मिले, लेकिन उनकी शायरी की मुलायम संवेदनाएं और नाज़ुकबयानी हैरान कर देने वाली हैं। उनकी दर्ज़नों ग़ज़लें उर्दू अदब की अमूल्य धरोहर हैं। उनकी ग़ज़लों की ख़ासियत यह है कि वहां महबूबा कोई हवाई पात्र नहीं, एक संघर्षशील स्त्री और पुरुष की दोस्त तथा सहयात्री है। गुलाम अली की आवाज़ में उनकी ग़ज़ल 'चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है / हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है' सुनना एक विलक्षण अनुभव है। आईए स्वतंत्रता-संग्राम के विस्मृत सेनानी, विलक्षण पत्रकार और उर्दू के नाज़ुकमिजाज़ शायरों में एक हसरत मोहानी को उनकी पुण्यतिथि (13 मई) पर याद करें, उनकी एक ग़ज़ल के कुछ अशआर और संविधान सभा में चर्चा के दौरान उनके और बाबासाहब आंबेडकर के एक दुर्लभ चित्र के साथ !
फिर भी है तुमको मसीहाई का दावा देखो
मुझको देखो, मेरे मरने की तमन्ना देखो
दो ही दिन में है न वो बात,न वो चाह,न प्यार
हमने पहले ही ये तुमसे न कहा था, देखो
हम न कहते थे बनावट से है सारा ग़ुस्सा
हंसके लो फिर वो उन्होंने हमें देखा, देखो
घर से हर वक़्त निकल आते हो खोले हुए बाल
शाम देखो न मेरी जान, सवेरा देखो
सामने सबके मुनासिब नहीं हमपर ये इताब
सर से ढल जाए न ग़ुस्से में दुपट्टा देखो
सर कहीं, बाल कहीं, हाथ कहीं, पांव कहीं
उसका सोना भी है किस शान का सोना देखो
हवस-ए-दीद मिटी है, न मिटेगी ‘हसरत’
देखने के लिए चाहो उन्हें जितना देखो

From Dhruv Gupt facebook wall

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