"मोहब्बत के दंगे" क्यों ?
"अगर आज मैं मोदीजी या भाजपा के ख़िलाफ़ लिखना, बोलना शुरू कर दूँ तो रातों रात मुझे हीरो बना दिया जाएगा और ना जाने कितने लोगों की दुआए मिलनी शुरू हो जाएँगी"
ठीक उसी प्रकार अगर कोई कांग्रिस या ओवैसि के ख़िलाफ़ बोलता है तो वो दूसरे वैसे लोगों को नज़र में हीरो बन जाता है जो अपनी एक ख़ास मानसिकता की वजह से उन्हें पसंद नहीं करता।
यानी दोनों तरफ़ बात एक ही है फिर कौन ये साबित करे कि दोनो सही हैं या दोनों ग़लत है और सही ग़लत की पैमाइश क्या होगी?
एक इंसान की औसतन ज़िंदगी 65 या 75 के आस पास होती है। और वो वोट देने के लायक 18 साल उम्र के बाद होता है।
एक इंसान अपनी ज़िंदगी में ज़्यादा से ज़्यादा MP इलेक्शन में 6 या 8 बार वोट देते होंगे।
यानी हम हर पाँच साल बाद वोट देते हैं और फिर पाँच साल एक दूसरे से लड़ने झगड़ने में गुज़ार देते हैं कि किसका धर्म, कौन नेता बेहतर है???
क्या हमारी ज़िंदगी का यही मक़सद है?
अगर आप ग़ौर करेंगे तो पाएँगे कि ज़िंदगी का असल मक़सद को आप साइड करके देश में नफ़रत की राजनीति में ऐसे उलझ गए कि हमें फ़ुर्सत ही नहीं कि
हम एक दूसरे से मिले,
एक दूसरे ग़म ख़ुशी में शामिल हो सके
एक दूसरे के पर्व में शामिल हो कर ख़ुशी से मनायें
मुहल्ले, गाँव देहात में रोज़ शाम में चारपाई पर बैठ कहानी सुनायें
आपसी मनमुटाओ इस क़दर है कि एक दूसरे के सामने भी आना पसंद नहीं करते
क्या हम अपने बच्चों को ऐसी ही ज़िंदगी देंगे जहाँ एक तरफ़ बच्चों के लिए भविष्य की चिंता सता रही हो दूसरी तरफ़ उनके सामाजिक सुरक्षा की चिंता सता रही हो।
बच्चों के पढ़ाई ख़ुद में एक बड़ा बोझ है और फिर उन्हें इस बात का बोझ देंगे कि उन्हें मुस्लिम से दोस्ती करनी है या नहीं या हिंदू से दोस्ती या नहीं।
आखिर कौन बच्चो उज्जवल भविष्य की गारंटी देगा?
कौन उनके उच्च शिक्षा की गारंटी देगा? कौन उन्हें ये बताये कि शिक्षा का प्रयोग अच्छे कामो में होता है अगर हम उनके लिए अशिक्षित नेता चुनेंगे???
हमारे जीवन की शुरुआत से लेकर हमारे स्कूल तक के सफर में राजनीती कभी असर नहीं डाल पाती क्योंकि हम जीवन के अठखेलियों में दोस्तों के साथ इस तरह से मशगूल होते हैं कि हमें अपने चारो तरफ फैले नफरत और नकारात्मकता नज़र नहीं आती और जीवन उतनी ही खुशहाल और तनावमुक्त होती है.
क्यों नहीं हम वैसे समाज बना सकते जहाँ ऐसे ही जीवन और अपने आने वाले पीढियो को एक खुशहाल और नफरतमुक्त समाज दे सकते?
इसके लिए हमें बस एक होकर रहने और एक दूसरे के दुःख सुख में साथ खड़े होने ज़रूरी है.
इसके लिए ज़रूरी है ज़ोरदार तरीके से अपने मोहब्बत को जाताना, अपने देशवासियो से मोहब्बत दिखाना,
जब नफरत सड़को पर उत्तर के किया जा सकता है तो आपसी एकता का मुज़ाहेरा क्यों नहीं?
"मोहब्बत के दंगे" यही तो है,एक देश एक परिवार
जहाँ हर तरह के मामला के बावजूद एक होते हैं
रफ़ीक अहमद

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