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Wednesday, July 20, 2011

Siwan-मंदिरों व मठों का इतिहास ऐतिहासिक

सिवान-जिले का इतिहास काफी समृद्ध व पुराना रहा है। इतिहास की प्रथम सच्चाई के अनुसार अति प्राचीन काल में इस क्षेत्र विशेष पर शिवासेन नामक राजा का शासन था। जिसने अपने नाम पर इस स्थान विशेष का नामकरण सिवान किया। एक अन्य धारणा के अनुसार इस शहर का नाम बंध राजवंश के उत्तराधिकारी के नाम से हुआ है। इस जिले में धार्मिक व ऐतिहासिक स्थलों व मठों की लंबी कड़ी है, जो कि विभिन्न कारणों से चर्चित रहे हैं। जिले के सिसवन प्रखंड स्थित मेंहदार व सोहागरा स्थित शिव मंदिर और दारौंदा प्रखंड के भीखाबांध व सिसवन का आनंद मठ कतिपय कारणों से हमेशा से ही चर्चा का विषय रहा है।
मेंहदार : भगवान शिव का दिव्य रूप व भव्य मंदिर यहां की पहचान है। पास में ही एक अनुपम पोखरा के किनारे आज भी उस समय के नेपाली सिक्के मिलते हैं। इस संबंध में कहा जाता है कि नेपाल नरेश महेन्द्र का राज्य सिसवन घाट तक था। राजा के प्रयास से ही मंदिर का निर्माण लाहौरी ईट से किया गया है। नींव की गहराई साढ़े छह हाथ है। पास में ही 52 बिगहा में कमलदाह पोखरा आज भी है। कहा जाता है कि अहंकार वश अगर कोई पोखरे की परिक्रमा करना चाहे तो पूरी नहीं हो पाती है। मंदिर के सामने मौजूद पीपल की खुदाई के दौरान उक्त शिवलिंग मिला था। राजा के शौच के लिए जिस स्थान से पानी लाया गया आज वहां मंदिर के पश्चिम में एक पक्का कुआं है। मंदिर के गुंबद के ऊपर कनक निर्मित तीन कलश, एक जौ और उसके ऊपर एक त्रिशूल है। एक वर्ष पहले मंदिर की देखरेख के लिए महेंन्द्र नाथ धाम न्यास परिषद का गठन किया गया, जो कि वर्तमान में पूरी तरह से नकारा साबित हो रहा है। मंदिर का कार्यभार सरकार के कब्जे में है, हालांकि राजस्व प्राप्ति के चढ़ावा को ले किसी तरह का कोई आडिट नहीं होता है। बात अगर मंदिर से जुड़ी सामाजिक गतिविधियों की करें तो प्रतिवर्ष काफी संख्या में दहेज मुक्त शादियां यहां होती हैं। मंदिर में चढ़ावा व घंट बांधने को लेकर विवाद होते रहे हैं। इस मामले में दर्जनों मुकदमे न्यायालय में लंबित पड़े हैं। इन्हीं सब को ले गोलीबारी व करीब एक दशक पूर्व तीन हत्याएं भी यहां हो चुकी हैं।
सोहागरा : गुठनी प्रखंड में यह पौराणिक मंदिर है। रावण के मित्र वाणासुर द्वारा स्थापित इस मंदिर में भगवान शिव का काला मिश्रित भूरे रंगे का चार फीट ऊंचा और साढ़े तीन फीट चौड़ा शिवलिंग है। कहते हैं कि वाणासुर ने अपनी पुत्री की पूजा के लिए इस मंदिर का निर्माण कराया था। इतिहासकारों का मत है कि यह शिवलिंग महाभारतकालीन उत्तर के पश्चात का है। यह स्थान एक ऐसे सांस्कृतिक केंद्र के रूप में स्थापित रहा है जहां प्रत्येक युग के साक्ष्य मौजूद हैं। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद यह पौराणिक स्थल पर्यटन के क्षेत्र में मानचित्र पर अपनी पहचान बनाने में अब भी संघर्षरत हैं। हाल के दिनों में सोहागरा धाम के रेलमार्ग से जोड़ने की चर्चाओं के चलते इसके नये विकास की उम्मीद बनती है। बात चाहे मंदिर की संपत्तियों से जुड़े आडिट की हो या सामाजिक सरोकार की दिशा में मंदिर की पहल का ऐसा कुछ भी यहां नहीं है। मंदिर के साथ किसी भी मामले को ले कोई विवाद नहीं जुड़ा है।
आनंद बाग मठ और सुंदर बाग मठ : सिसवन प्रखंड के बखरी गांव स्थित दोनों मठ के लिए किसी तरह की कोई समिति या ट्रस्ट नहीं बनी है और न तो किसी तरह की आडिट की कोई व्यवस्था है। आनंद बाग मठ में संत जगन्नाथ स्वामी व सुंदर बाग मठ में संत भगवान दास की समाधि है। बखरी गांव के मंगनी राय, रामचंद्र राय, कपिलदेव राय आदि किसानों की दान स्वरूप जमीन पर मठ का संचालन होता है। मठ के तत्कालीन महंत राजबल्लभ दास उर्फ जंगली दास प्रति दिन आयुर्वेद के अनुभवी व योग्य ज्ञाता हैं, जो कि प्रतिदिन योग से निरोग रहने के टिप्स देते हैं। श्रावण पूर्णिमा के मौके पर मठ से जुड़े दिल्ली, पश्चिम बंगाल के कोलकाता व लिलूआ, उत्तर प्रदेश के मऊ, बलिया, बनारस, रानीगंज, गोरखपुर और बिहार के नालंदा, औरगांबाद व जहानाबाद से हजारों की संख्या में श्रद्धालु यहां आते हैं। 2002 में तत्कालीन महंत भगवान दास की मृत्यु के बाद महंत बनने को लेकर दोनों पक्षों के बीच झड़प व विवाद हुआ था।
भीखा बांध मठ : दारौंदा प्रखंड स्थित यह मठ करोड़ों की संपत्ति अर्जित करने के बावजूद चंदे के पैसे से चलता है। मठ की जमीनें तरवारा, जनता बाजार व महाराजगंज समेत कई अन्य जगहों पर भी है, जिसकी सही जानकारी मठ समिति को भी नहीं है। मठ का विशाल भवन व मंदिर जर्जर अवस्था में अपनी बदहाली की दास्तां बयां कर रहे है। स्थानीय लोग बताते हैं कि एक वक्त मठ में काफी संख्या में हाथी व घोड़े थे और काफी संख्या में कई जगहों से साधु संत यहां आया करते थे। स्थानीय स्तर पर इसका संचालन जीर्णोद्वार भीखाबांध मठ के जरिये होता है। समिति में अस्सी सदस्य शामिल हैं। मठ में भगवान शिव का विशाल मंदिर है, जबकि राधा-कृष्ण व देवी दुर्गा का मंदिर भी है। मंदिर में छह बार चोरी भी हो चुकी है। सामाजिक सरोकार से मठ का कोई लेना-देना नहीं है। हां, 1993 में मठ के तत्कालीन महंत पुरुषोत्तम दास की हत्या आपराधिक कारणों से हुई थी। वे दबंग किस्म के होने के साथ ही आपराधिक गतिविधियों से भी जुड़े थे। उन पर हथियार रखने का भी आरोप था। इस घटना के बाद से ही मठ में महंत की स्थायी नियुक्ति नहीं हुई है और स्थानीय लोगों के सहयोग से मठ का कार्य पुजारी करते हैं।

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