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Friday, December 21, 2018

मौलाना मज़हरूल हक़ साहब के यौमे पैदाईश पर ख़ास

वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गई !
महान स्वाधीनता सेनानी #मौलाना_मज़हरुल_हक़ के यौमे पैदाईश पर मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास उतना भर नहीं जितना इतिहास की किताबों में दिखता है। भारतीय इतिहास लेखन में धार्मिक और जातीय पूर्वग्रह की जड़ें बहुत गहरी हैं। देश के एक समर्पित स्वतंत्रता सेनानी, प्रखर शिक्षाविद, अग्रणी समाज सेवक, लेखक और बिहार की विभूतियों में एक मौलाना मज़हरुल हक़ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे ही योद्धाओं में रहे हैं जिन्हें उनके स्मरणीय योगदान के बावज़ूद इतिहास और देश ने लगभग भुला दिया। सन 1866 में पटना जिले के बिहटा के ब्रह्मपुर के एक जमींदार परिवार में जन्मे तथा 1900 में सारण जिले के ग्राम फरीदपुर में जा बसे मज़हरुल हक़ ने लंदन से क़ानून की उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। लंदन में सभी धर्मों और फिरकों के लोगों को एक साथ लाने के उद्धेश्य से उन्होंने ‘अंजुमन इस्लामिया’ नाम से एक संस्था की स्थापना की थी जहां प्रवासी भारतीय और ब्रिटेन में पढ़ने वाले छात्र नियमित अवधि पर एकत्र होकर भारत की स्थिति और समस्याओं पर विमर्श करते थे। महात्मा गांधी इसी संस्था में पहली बार मज़हरुल साहब से मिले थे।1891 में बिहार लौटने के बाद पटना और छपरा में सफल वक़ालत के साथ सामाजिक और शैक्षणिक कार्यों में उनकी रूचि ने उनकी लोकप्रियता बढ़ाई।1897 में बिहार के सारण जिले के भीषण अकाल के दौरान राहत कार्यों में उनकी बड़ी भूमिका थी। धीरे-धीरे देश के स्वाधीनता आंदोलन से उनका जुड़ाव होता चला गया। 1916 में बिहार में होम रूल मूवमेंट की स्थापना के बाद वे उसके अध्यक्ष बने। अंग्रेजों के खिलाफ डॉ राजेन्द्र प्रसाद के साथ चंपारण सत्याग्रह में शामिल होने की वज़ह से उन्हें जेल की सजा भी हुई। जब महात्मा गांधी ने देश में असहयोग और ख़िलाफ़त आंदोलनों की शुरुआत की तो मज़हरुल हक़ ने अपना वकालत का पेशा और मेंबर ऑफ़ इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल का सम्मानित पद छोड़ दिया और पूरी तरह स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा हो गए।


आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए 1920 में उन्होंने पटना में अपनी सोलह बीघा ज़मीन दान में दे दी जिसपर स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महत्वपूर्ण योगदान देने वाले सदाकत आश्रम की स्थापना हुई। यह आश्रम जंग-ए-आज़ादी के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों का तीर्थ हुआ करता था। सदाकत आश्रम से उन्होंने ‘मदरलैंड’ नाम से एक साप्ताहिक पत्रिका भी निकाली जिसमें आज़ादी के पक्ष में क्रांतिकारी लेख छपते थे। अपने प्रखर लेखन के कारण मज़हरुल साहब को जेल भी जाना पड़ा। सदाकत आश्रम आज़ादी के बाद बिहार कांग्रेस का मुख्यालय बना, लेकिन आज देश तो क्या बिहार के भी बहुत कम कांग्रेसियों को आज मौलाना साहब की याद होगी। सारण जिले के फरीदपुर में उनका घर ‘आशियाना’ उस दौर में स्वतंत्रता सेनानियों का आश्रय-स्थल हुआ करता था। पंडित मोतीलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, मदन मोहन मालवीय सहित कई लोग इस घर के मेहमान रहे थे। अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तारी के डर से भागे आज़ादी के कई सिपाहियों ने ‘आशियाना’ में पनाह पाई थी।
मजहरुल साहब बिहार में शिक्षा के अवसरों और सुविधाओं को बढ़ाने तथा अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राइमरी शिक्षा लागू कराने के लिए अरसे तक संघर्ष करते रहे। गांघी के असहयोग आंदोलन के दौरान अपनी पढ़ाई छोड़ने वाले युवाओं की शिक्षा के लिए उन्होंने सदाकत आश्रम परिसर में विद्यापीठ कॉलेज की स्थापना की। यह विद्यापीठ उन युवाओं के लिए वरदान साबित हुआ जिनकी पढ़ाई आन्दोलनों और जेल जाने की वजह से बाधित हुई थी। बिहपुरा में जहां वे पैदा हुए, उस घर को उन्होंने एक मदरसे और एक मिडिल स्कूल की स्थापना के लिए दान दे दिया ताकि एक ही स्कूल परिसर में हिन्दू और मुस्लिम बच्चों की शिक्षा-दीक्षा हो सके। देश की स्वाधीनता और सामाजिक कार्यों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने पर्दा प्रथा के खिलाफ जनचेतना जगाने का प्रयास किया था। वे देश की गंगा-जमुनी संस्कृति और हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल हिमायती थे। उनका कथन था – ‘हम हिन्दू हों या मुसलमान, हम एक ही नाव पर सवार हैं। हम उबरेंगे तो साथ, डूबेंगे तो साथ !’
1930 में मृत्यु के पूर्व आखिरी दिनों में गिरते स्वास्थ के कारण उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया था, लेकिन देश की आज़ादी के लिए हो रहे तमाम प्रयासों को उनका नैतिक समर्थन ज़ारी रहा। स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान की स्मृति में सरकार ने वर्ष 1998 में मौलाना मज़हरुल हक़ अरबी एंड पर्शियन यूनिवर्सिटी की स्थापना की जो आज अरबी और फ़ारसी भाषाओं की शिक्षा और शोध का प्रमुख केंद्र है। बिहार सरकार ने अरसे पहले पटना की एक प्रमुख सड़क फ्रेज़र रोड का नाम परिवर्तित कर मौलाना मज़हरुल हक़ पथ रखा, लेकिन यह नाम आजतक लोगों की ज़ुबान पर नहीं चढ़ सका है। उनकी स्मृति के रूप में छपरा शहर में उनकी एक मूर्ति तो है, लेकिन उपेक्षित ! हमारे द्वारा धर्म और जाति से ऊपर उठकर इतिहास के अपने नायकों का सम्मान करना सीखना अभी बाकी है ।
मौलाना मज़हरुल हक़ के152 वे यौमे पैदाईश (22 दिसंबर} पर खिराज-ए-अक़ीदत !

✍🏻~Dhruv Gupt sir

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