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Thursday, January 18, 2018

धार्मिक असहिष्णुता के मसले पर

देश के कस्बों और गांवों में विकास के साथ बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता के मसले पर फेसबुक पर अभी-अभी पढ़ी मित्र पंकज शुक्ला की एक कविता ने संवेदनाओं को झकझोर कर रख दिया। आप भी पढ़िए यह सीधी-सच्ची, लेकिन भीतर तक मार करने वाली बेहतरीन कविता !
तरक्की / पंकज शुक्ला वहां ज्यादा कुछ नहीं था
एक चाय की दुकान
बस का इन्तजार करते
लोगों के बैठने की जगह
और एक दुकान साइकिल की
गांव के बाहर बस स्टैण्ड कही
जाने वाली जगह पर इतना ही हुआ करता था
कच्ची सड़क के एक ओर थी
गंगाराम चाय की दुकान
और इसके ठीक सामने गरीब नवाज साइकिल सर्विस
रफीक उस्ताद की दुकान से ही किराए पर लेकर लोगों ने साइकिल की सवारी सीखी थी
शायद इसीलिए ठीक-ठाक चल रही थी
उनके जीवन की गाड़ी
रफीक उस्ताद इसे खुदा का फजल कहा करते थे 
ग्राहक के मामले में गंगाराम रफीक उस्ताद से गरीब ही था
अक्सर रफीक उस्ताद यूं ही
अपनी ओर से लोगों को चाय पिलाया करते थे
 गंगाराम भी खूब समझता था
तभी तो खैरियत पूछने पर वह कहा करता था -
‘उस्ताद का फजल है’
धीरे-धीरे तरक्की हुई
 गांव आबाद हुआ
बसों की आवाजाही बढ़ी
अखबार आने लगा
रेडियो और टी. वी. आया
पर बस स्टैण्ड आज भी
वहीं है वहीं है गंगाराम चायवाला
और रफीक उस्ताद साइकिल वाले
 गंगाराम की दुकान पर मिठाई भी मिलती है,
लेकिन रफीक मियां यहां नहीं आते

न गंगाराम कहता है -
उस्ताद का फजल है
दोनों दुकानों के बीच 
अब पक्की सड़क बन गई है।

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