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Sunday, July 3, 2016

Riots and terrorist

14 साल पहले का वाक़या है। बीबीसी हिन्दी के पत्रकार रेहान फज़ल साबरमती एक्सप्रेस में जलाए गए कारसेवकों की रिपोर्टिंग कर के गोधरा से अहमदाबाद एयरपोर्ट लौट रहे थे। एक दिन पहले हुई इस घटना की प्रतिक्रिया में पूरे गुजरात में दंगे शुरू हो चुके थे। एक चौराहे पर उत्पात मचाती हुई भीड़ को देख कर उनके ड्राइवर ने कार थोड़ी दूर पहले ही रोक दी। भीड़ में से कुछ लोग हाथों में हथियार लहराते हुए और जय श्री राम का नारा लगाते हुए उनकी कार की तरफ़ लपके और उनमे से एक ने उन्हें पागलपन के आलम में चिल्लाते हुए पहचान पत्र दिखाने को कहा। इसी बीच रेहान ने देखा की थोड़ी दूर सड़क पर भीड़ की एक दूसरी टुकड़ी ने एक व्यक्ति को उसकी कार से खींच लिया और दो लोग उसके पेट में बार बार छुरा मार रहे हैं। पलक झपकते ही वो व्यक्ति सड़क पर ही हमेशा के लिए सो गया। तय था की रेहान अगर अपना पहचान पत्र दिखाते तो इसी तरह मारे जाते। रेहान की कार में उनकी पत्नी का भी पहचान पत्र था और इत्तेफ़ाक़ से उनकी पत्नी का नाम ritu था। उन्होंने वो पहचान पत्र कुछ यूं दिखाया की पहचान पत्र पर अंकित तस्वीर 2 उंगलियों से छुपी रही। कार की खिड़की के पास खड़े उस अनपढ़ दंगाई ने हल्के और महीन प्रिंट में छपे हुए उन लफ़्ज़ों को पढ़ने की कोशिश की। फिर उस दंगाई ने भीड़ से कहा- छोड़ दो इसको , इसका नाम ritik है।
बाबरी विध्वंस के बाद पूरे उत्तर भारत में दंगे हुए थे मगर मुंगेर और सीतामढ़ी जैसे शहरों को छोड़ कर पूरे बिहार में स्थिति काफी हद तक क़ाबू में थी। मुंगेर से जमालपुर के बीच चलने वाली लोकल ट्रेन को दंगाइयों ने बीच रास्ते में रोका और ट्रेन में घुस गए।लोगों का हुलिया जैसे की दाढ़ी नक़ाब आदि देख कर उन्होंने लोगों को ट्रेन से उतार कर रेतना शुरू किया। मिनटों में ही कई लोग मारे गए। ट्रेन के आखरी (गार्ड) डब्बे में आर पी एफ़ के सब इंस्पेक्टर बैठे थे जो इत्तेफ़ाक़ से मुसलमान थे। उन्होंने उतरकर रोकना चाहा मगर उनकी हिम्मत नहीं हुई। दंगाइयों ने आख़री डब्बे को चेक नहीं किया इसलिए वो बच गए। इसी दौरान मुंगेर में मेरे पड़ोस में रहने वाली एक औरत के ससुर का देहांत समस्तीपुर में हो गया था। माहौल बहुत ख़राब था मगर उसे हर हाल में अपने ससुराल जाना था। बहुत मना करने पर भी वो नहीं मानी और उसने सिंदूर , बिंदी आदि धारण करके बिना नक़ाब के समस्तीपुर तक का सफर तय किया।
आज जब मैंने पढ़ा की बांग्लादेश में अल्लाहुअकबर का नारा लगाते हुए कुछ आतंकवादियों ने भी इसी तरह नॉन मुस्लिमो को पहचान पहचान कर मारा तो ये सारे क़िस्से याद आए। पता नहीं क्यूँ मीडया सबको आतंकवादी नहीं कहता ? इनकी हरकतें एक सी हैं मगर किसी को दंगाई तो किसी को आतंकवादी कहा जाता है। मैं बांग्लादेश में मारे गए लोगों का दुख आपसे ज़्यादा महसूस कर सकता हूँ। दुनिया में इंसान की जान से ज़्यादा किसी चीज़ की कीमत नहीं है। मैं यही दुआ करता हूँ की अल्लाह और राम के नाम का नारा लगा कर खून बहाने वालों को ये बात समझ आए। और हमें भी ये बात समझ आए की हिन्दू हो या मुसलमान या कोई सिख , सबकी जान की क़ीमत बराबर है। आमीन।
Shah Sayem Iftekhar भाई से साभार l

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