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Friday, July 10, 2015

कभी ऐ हक़ीक़ते मुंतजर_– अल्लामा मुहम्मद इक़बाल



कभी ऐ हक़ीक़ते मुंतजर नज़र आ लिबासे-मजाज़ में ।
कि हजारों सज़दे तड़प रहे हैं मरी जबीने-नयाज़ में ।।
तर्ब आशनाए खरोश हो,तु नवाए महरुमे गोश हो
वह सरूर क्या कि छुपा हुआ हो सकुते पर्दए साजमें
तू बचा बचा के न रख इसे तेरा आईना है वो आईना,
जो शकस्ता हो तो अज़ीज़तर है निगाहे-आईनासाज़ में ।
दमे तूफ करमके शमाने कहा कि वह असरे कुहन!
न तेरी हिकायते सोझमें न मेरी हदीसे गुदाझ में
न कहीं जहाँ में अमाँ मिजी जो अमाँ मिली तो कहाँ मिली,
मेरे जुर्म-हाय-सियाह को मेरे अफ़वे-बंदानवाज़ में ।
न वो इश्क में रही गर्मियाँ न वो हुस्न में रहीं शोखियाँ,
न वो ग़जनवी में तड़प रही न वो ख़म है जुल्फ़े-अयाज में ।
जो में सर बसजदह हुआ कभी तो,जमींसे आने लगी सदा!
तेरा दिल तो है सनम आशनां तुज्हे क्या मिलेगा नमाज में.

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